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September 7, 2020
केरल के शंकराचार्य के नाम से मशहूर 79 वर्षीय केशवानंद भारती का भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने में जो योगदान है, वह न्यायिक इतिहास के पन्नों में सदैव दर्ज रहेगा। संविधान के रक्षक माने जाने वाले केशवानंद भारती मामले (1973) में सुप्रीम कोर्ट का दिया गया निर्णय भारतीय इतिहास की वह तारीख है, जिसके बारे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर आज हमारा संविधान जीवित है तो सिर्फ इसकी वजह से।
केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने बहुमत (7-6) के आधार पर यह फैसला दिया था कि किसी भी स्थिति में संविधान की मूलभूत संरचना में बदलाव नहीं किया जा सकता और संसद द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। इस निर्णय ने संसद के लिए लक्ष्मण रेखा तय कर दी। कहना गलत नहीं होगा कि इस फैसले की वजह से भारत एक लोकतंत्र के रूप में बचा रह सका।
संविधान की मूलभूत संरचना का तात्पर्य संविधान में निहित उन प्रावधानों से है, जो भारतीय संविधान के लोकतांत्रिक आदर्शों को प्रस्तुत करते हैं। केशवानंद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि इन प्रावधानों को संविधान में संशोधन के द्वारा भी हटाया नहीं जा सकता है।
एक मायने में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि सरकार की तानाशाही नहीं चलेगी यानी इस फैसले से सरकार पर अपनी संख्या बल के आधार पर मनमानी करने पर विराम लग गया। केशवानंद भारती के मामले के चलते ही संसद और न्यायपालिका के बीच वह संतुलन कायम हो सका।
यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आज तक इस मामले को छोड़कर सुप्रीम कोर्ट में 13 सदस्यीय पीठ का गठन नहीं हुआ। इतना ही नहीं इस मामले ने सबसे लंबी सुनवाई का इतिहास भी रचा। इस मामले की सुनवाई 68 दिनों तक चली थी। मूलभूत संरचना से जुड़े प्रावधान, जो जनमानस के विकास के लिए आवश्यक है, अपने आप में इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनमें किसी तरह के नकारात्मक बदलाव से संविधान के सार-तत्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
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