Post Views 11
September 4, 2020
फूँक से ख़ुद को बुझा के देखा,
और आँधी में जला के देखा।
मिट्टी का इक घड़ा बना कर,
ख़ुद को ठोक-बजा के देखा।
ख़र्च किया पहले तो ख़ुद को,
उसके बाद कमा के देखा।
पंख कतर कर हमने अपने,
साथ हवा के उड़ा के देखा।
तलवारें थीं सब शर्मिंदा,
जब भी सर को उठा के देखा।
बेलिबास करना था सच को,
नज़र से पर्दा उठा के देखा।
तन्हाई जब बनी आईना,
ख़ुद को घटा बढ़ा के देखा।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
© Copyright Horizonhind 2025. All rights reserved